कार्बी जनजाति मुख्यत: पूर्वोत्तर भारत के असम स्थित कार्बी आंगलोंग क्षेत्र में पाई जाती है। कार्बियों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को कार्बी, आर्लेंग (Arleng) और मिकिर (Mikir) भी कहा जाता है, जो तिब्बतो-बर्मन भाषा परिवार के अंतर्गत आती है। वैसे आर्लेंग का अर्थ यहाँ आदमी होता है, जैसे आप कॉकबरक में बरक को कहते हैं। पूर्वोत्तर की अधिकांश जनजातीय भाषाओं की तरह कार्बियों की भी अपनी लिपि नहीं है। ये रोमन या असमीया लिपियों का इस्तेमाल करते हैं। इस क्षेत्र में साहित्य और शिक्षा की स्थिति पर प्रो. रोंगबोंग तेरांग ने एक जगह लिखा है कि बीसवीं सदी के आठ दशकों में कार्बी भाषा में कोई उल्लेखनीय रचनात्मक साहित्य नहीं लिखा गया है।
वर्तमान अंक
संपादकीय
पूर्वोत्तर नागरी साहित्य मंच की वार्षिक ई-पत्रिका ‘पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका’ का दूसरा अंक आपके सामने पेश करते हुए बेहद खुशी हो रही है। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर भारत के वैविध्यपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए यहाँ की छोटी-बड़ी भाषाओं में मौजूद मौखिक और लिखित लेखन को हिन्दी में अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से इस ऑनलाइन पत्रिका की शुरूआत की गई है। प्रस्तुत अंक में प्रत्येक राज्य से संबंधित सामग्री संकलित करने का प्रयास किया गया है। इस क्रम में अरुणाचल से श्रीमती मोर्जुम लोयी और डॉ. जोराम आनिया ताना के श्री जुम्सी सीराम तथा न्यिशी जनजाति की लोककथाओं पर प्रकाशित लेख ध्यातव्य हैं। मिज़ोरम से डॉ. सी ललरमपना और डॉ. जेनी मलसोमदोङकिमी द्वारा लिखित ‘मिज़ोरम की जनजातियाँ और भाषाएँ’ व ‘मिज़ो वर्णमाला गीत’ शीर्षक लेख, त्रिपुरा से डॉ. बीना देबबर्मा का ‘त्रिपुरी जनजाति में गॉरिया पूजा’ नामक लेख, मणिपुर की ताङ्खुल जनजाति के समाज और संस्कृति पर रिनचुई होराम व लुजिकलु पानमेई का कबुई लोककथाओं पर व असम की कार्बी जनजाति में प्रचलित रामकथा साबिन आलुन पर आलेख भी पढ़े जाने योग्य हैं। डॉ. चुकी भूटिया का ‘शव काटने वाला आदमी में अभिव्यक्त मनपा समाज और संस्कृति’ आलेख इस अंक का विशेष आकर्षण है।
इनके अलावा डॉ. मिलन रानी जमातिया द्वारा लिखित ‘आमा और हमारा घर’ नामक आत्मकथांश, डाॅ रीतामणि वैश्य का संस्मरण ‘शांति बाइकें : यादों के झरोखे से ‘ डॉ. बिद्या दास की कहानी ‘लता’, डॉ. जीन एस. ड्खार की ‘प्रतियोगिता’ नामक कविता, टी हेलेन कीकोन द्वारा प्रस्तुत लोथा लोककथाएँ, एहसिंग खिएवताम द्वारा अनूदित खासी लोककथा, ख्रुत्सुलू दोजो द्वारा भेजी गई छोक्री (नागा) लोककथा भी इस अंक को प्रभावशाली बनाते हैं।
उम्मीद है, अंक आपको पसंद आएगा। आप सबके लेखों/रचनाओं/सुझावों और टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है।
तो, प्रस्तुत है ‘विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित’ वार्षिक हिंदी ई-पत्रिका ‘पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका’ का दूसरा अंक-
संपादकत्रय
डॉ. रीतामणि वैश्य
डॉ. मिलनरानी जमातिया
प्रो. जय कौशल